Are generic medicines safe in india : भारत में स्वास्थ्य देखभाल के क्षेत्र में एक बहुत ही जटिल और महत्वपूर्ण मुद्दा दवाइयों की कीमतों और उनकी उपलब्धता से संबंधित है। खासकर जब बात दवाइयों की होती है, तो यह देखा गया है कि उच्च कीमतों के कारण कई लोग आवश्यक दवाइयाँ नहीं खरीद पाते, जिससे उनकी सेहत पर नकारात्मक असर पड़ता है। इस समस्या का समाधान जेनरिक दवाइयाँ (generic medicines) पेश कर सकता है, जो ब्रांडेड दवाइयों की तुलना में काफी सस्ती होती हैं, लेकिन उनकी गुणवत्ता और प्रभावशीलता समान होती है। जेनरिक दवाइयाँ न केवल स्वास्थ्य देखभाल की लागत को कम करने में मदद करती हैं, बल्कि यह सुनिश्चित भी करती हैं कि अधिक से अधिक लोग अपनी स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों को पूरा कर सकें।
भारत में स्वास्थ्य देखभाल के संदर्भ में जेनरिक दवाइयों का प्रचार और प्रसार एक महत्वपूर्ण कदम है। इस लेख में हम जेनरिक दवाइयों के महत्व, उनके प्रसार में आने वाली चुनौतियाँ, डॉक्टरों के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव और सरकार की भूमिका पर चर्चा करेंगे।
Table of Contents
जेनरिक दवाइयों का महत्व
1. सस्ती और सुलभ
भारत में जेनरिक दवाइयाँ ब्रांडेड दवाइयों के मुकाबले कहीं अधिक सस्ती होती हैं। यह बात खासकर उन लोगों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है जो निम्न आय वर्ग से संबंधित हैं और जिनके पास महंगे इलाज का खर्चा उठाने की क्षमता नहीं है। जेनरिक दवाइयाँ अधिक सुलभ होती हैं, जिससे गरीब और मिडिल क्लास वर्ग के लोग आसानी से दवाइयाँ खरीद सकते हैं। ब्रांडेड दवाइयों में महंगे अनुसंधान, विज्ञापन जैसे खर्चे जुड़ते हैं, जबकि जेनरिक दवाइयों को बनाने में ऐसे खर्चे नहीं होते, इसलिए ये सस्ती होती हैं।
जेनरिक दवाइयाँ वही सक्रिय घटक (active ingredients) होती हैं जो ब्रांडेड दवाइयों में होते हैं, और इनका प्रभाव भी वही होता है। उदाहरण के तौर पर, अगर किसी व्यक्ति को ब्रांडेड दवाइयों के बजाय जेनरिक दवाइयाँ दी जाती हैं, तो उसे उसी उपचार का लाभ मिलता है, लेकिन दवाइयों की लागत कम होती है।
2. गुणवत्ता और सुरक्षा
जेनरिक दवाइयाँ, भले ही सस्ती होती हैं, लेकिन उनकी गुणवत्ता में कोई समझौता नहीं किया जाता है। भारत में जेनरिक दवाइयाँ बनाने वाली कंपनियाँ विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा निर्धारित ‘गुड मैन्युफैक्चरिंग प्रैक्टिस’ (GMP) मानकों का पालन करती हैं। इसके अलावा, इन दवाइयों को राष्ट्रीय प्रत्यायन बोर्ड (NABL) द्वारा मान्यता प्राप्त प्रयोगशालाओं में परीक्षण किया जाता है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि ये दवाइयाँ पूरी तरह से सुरक्षित और प्रभावी हैं।
जेनरिक दवाइयों की गुणवत्ता को लेकर कई बार भ्रांतियाँ फैलाई जाती हैं, लेकिन यह सच नहीं है। जब तक निर्माता GMP मानकों का पालन करते हैं, तब तक जेनरिक दवाइयाँ ब्रांडेड दवाइयों की तरह ही प्रभावी होती हैं।
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3. स्वास्थ्य देखभाल की लागत में कमी
भारत में स्वास्थ्य देखभाल की लागत लगातार बढ़ रही है, जिससे बड़ी संख्या में लोग इलाज के लिए आवश्यक दवाइयाँ नहीं खरीद पाते। जेनरिक दवाइयाँ इस बढ़ती हुई लागत को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। सरकार ने इस दिशा में कई प्रयास किए हैं, जैसे प्रधानमंत्री भारतीय जनऔषधि परियोजना (PMBJP), जिसके तहत सस्ती और गुणवत्तापूर्ण जेनरिक दवाइयाँ उपलब्ध कराई जा रही हैं।
सरकार द्वारा स्थापित 13000 से अधिक जनऔषधि केंद्रों के माध्यम से लोग 50-90% तक कम कीमतों पर दवाइयाँ खरीद सकते हैं। इन केंद्रों में जेनरिक दवाइयाँ ब्रांडेड दवाइयों की तुलना में काफी सस्ती होती हैं, जिससे गरीब और मिडिल क्लास परिवारों को राहत मिलती है।
डॉक्टरों का मानसिक स्वास्थ्य और आर्थिक दबाव
1. तनाव और बर्नआउट
स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में डॉक्टरों का काम अत्यधिक तनावपूर्ण होता है, और यह तनाव कई बार उनकी मानसिक स्थिति को प्रभावित करता है। भारतीय मेडिकल एसोसिएशन (IMA) के एक सर्वेक्षण के अनुसार, 80% से अधिक डॉक्टर अपने पेशे में अत्यधिक तनाव महसूस करते हैं। COVID-19 महामारी के दौरान यह स्थिति और भी गंभीर हो गई थी, क्योंकि डॉक्टरों को संक्रमित मरीजों की देखभाल के दौरान शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार के दबाव का सामना करना पड़ा।
इसके अलावा, डॉक्टरों पर आर्थिक दबाव भी एक बड़ा कारण है। भारत में चिकित्सा शिक्षा की उच्च लागत और नौकरी की अस्थिरता के कारण डॉक्टरों को आर्थिक दबाव का सामना करना पड़ता है। कई डॉक्टर निजी प्रैक्टिस के जरिए अपनी आय बढ़ाने की कोशिश करते हैं, लेकिन उन्हें कभी-कभी उच्च लागत वाले उपचार देने के लिए मजबूर किया जाता है।
2. डिप्रेशन और आत्महत्या
एक अध्ययन में यह पाया गया है कि 30% से अधिक डॉक्टर डिप्रेशन से पीड़ित हैं, और 16% से अधिक डॉक्टरों ने आत्महत्या के विचार व्यक्त किए हैं। यह स्थिति उनके मानसिक स्वास्थ्य के लिए खतरनाक साबित हो सकती है और उनके पेशेवर जीवन को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकती है।
डॉक्टरों का मानसिक स्वास्थ्य केवल उनके व्यक्तिगत जीवन को प्रभावित नहीं करता, बल्कि इससे उनके पेशेवर कामकाजी जीवन पर भी असर पड़ता है। डॉक्टरों का मानसिक स्वास्थ्य सुधारने के लिए उन्हें समुचित समर्थन और संसाधन प्रदान करना अत्यंत आवश्यक है।
ब्रांडेड दवाइयों का प्रचलन और फार्मास्युटिकल कंपनियों का प्रभाव
1. आर्थिक दबाव और रोजगार की चिंता
भारत में निजी प्रैक्टिस करने वाले डॉक्टरों पर आर्थिक दबाव काफी अधिक होता है। कई डॉक्टरों को अपने मरीजों को ब्रांडेड दवाइयाँ लिखने के लिए प्रेरित किया जाता है क्योंकि इन्हें लिखने से उन्हें कमीशन मिल सकता है। इसके अलावा, फार्मास्युटिकल कंपनियाँ डॉक्टरों को विभिन्न तरह के प्रोत्साहन देती हैं, जिससे वे ब्रांडेड दवाइयाँ लिखने के लिए अधिक उत्साहित होते हैं।
2. Marketing रणनीतियाँ
फार्मास्युटिकल कंपनियाँ अपनी दवाइयों का प्रचार-प्रसार करने के लिए विशाल marketing अभियानों का सहारा लेती हैं। ये कंपनियाँ डॉक्टरों को अपने उत्पादों के लाभ और विशेषताएँ समझाने के लिए विभिन्न कार्यक्रम और सेमिनार आयोजित करती हैं। इसके परिणामस्वरूप डॉक्टरों पर ब्रांडेड दवाइयाँ लिखने का दबाव बढ़ जाता है, जो जेनरिक दवाइयों की बिक्री में बाधा डालता है।
सरकार को चाहिए कि वह फार्मास्युटिकल कंपनियों के विपणन अभियानों पर कड़े नियम लागू करे, ताकि डॉक्टरों पर अनावश्यक दबाव न पड़े और जेनरिक दवाइयों का प्रचार-प्रसार सुचारू रूप से हो सके।
सरकारी नीतियाँ और जागरूकता अभियान
1. प्रधानमंत्री भारतीय जनऔषधि परियोजना (PMBJP)
भारत सरकार ने जेनरिक दवाइयों की उपलब्धता को बढ़ाने के लिए प्रधानमंत्री भारतीय जनऔषधि परियोजना (PMBJP) शुरू की है। इस योजना के तहत देशभर में 9,500 से अधिक जनऔषधि केंद्र खोले गए हैं, जहाँ पर जेनरिक दवाइयाँ 50-90% तक कम कीमत पर उपलब्ध होती हैं। इस योजना का उद्देश्य गरीब और मिडिल क्लास वर्ग के लोगों को सस्ती और गुणवत्तापूर्ण दवाइयाँ उपलब्ध कराना है।
इसके अलावा, ‘जनऔषधि सुगम’ ऐप के माध्यम से लोग अपने निकटतम जनऔषधि केंद्र का पता लगा सकते हैं और जेनरिक तथा ब्रांडेड दवाइयों की कीमतों की तुलना कर सकते हैं।
2. जागरूकता अभियान
सरकार ने जेनरिक दवाइयों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए कई कार्यक्रम चलाए हैं। भारतीय चिकित्सा परिषद (MCI) ने डॉक्टरों को निर्देशित किया है कि वे जेनरिक नामों से दवाइयाँ लिखें, ताकि मरीजों को कम कीमत पर दवाइयाँ मिल सकें। इसके साथ ही, सरकार विभिन्न मीडिया माध्यमों के जरिए जेनरिक दवाइयों के लाभों के बारे में लोगों को जागरूक कर रही है।
जागरूक वही हो सकता है जिसे आवश्यकता हो
रोजमर्रा की जिंदगी में हमें विभिन्न तरीकों की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। लेकिन हम किसी न किसी तरीके से हल निकाल लाते हैं। इस तरीके से अगर आपको ब्रांडेड दवाई से परेशानी है, खरीदने में दिक्कत आ रही है ? या यूं कहीं क पैसे का बोझ बढ़ता ही जा रहा है दवाई के मामले में। तो आप अपने आप को शिक्षित कर सकते हैं, जागरुक कर सकते हैं इनके बारे में ऑनलाइन या किताबों से पढ़कर,समझकर। जैसे आप समाज को देखकर कई तरह की चीजों को आत्मसात कर लेते हैं। उसी तरह से आपको भी अपनी समस्याओं को लेकर सतर्क रहना होगा और उसके बारे में जानना होगा। इसी से आपका समाधान हो सकता है। आप डॉक्टर को जेनेरिक दवाइयां लिखने के लिए कह सकते हैं।
चुनौतियाँ और समाधान
1. गुणवत्ता और सुरक्षा
जेनरिक दवाइयों की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए सख्त मानकों का पालन किया जाता है। इसके बावजूद, कुछ लोगों में यह भ्रांति होती है कि जेनरिक दवाइयाँ कम गुणवत्ता की होती हैं। इस भ्रांति को दूर करने के लिए सरकार और संबंधित संस्थाओं को लगातार जागरूकता अभियानों की जरूरत है।
2. वितरण और आपूर्ति श्रृंखला चुनौतियाँ
ग्रामीण और दूरदराज के क्षेत्रों में जनऔषधि केंद्र खोलने पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। वर्तमान में, इन क्षेत्रों में जनऔषधि केंद्रों की कमी है,
जिससे वहां के लोग सस्ती दवाइयाँ प्राप्त करने में कठिनाई महसूस करते हैं। सरकार को इन क्षेत्रों में बेहतर वितरण और आपूर्ति व्यवस्था की योजना बनानी चाहिए।
निष्कर्ष
भारत में जेनरिक दवाइयों का प्रचार-प्रसार एक महत्वपूर्ण कदम है, जो न केवल स्वास्थ्य देखभाल की लागत को कम करने में मदद करता है, बल्कि अधिक से अधिक लोगों को सस्ती और गुणवत्तापूर्ण दवाइयाँ उपलब्ध कराता है। डॉक्टरों के मानसिक स्वास्थ्य और आर्थिक दबाव को समझना और उन्हें समुचित समर्थन देना भी जरूरी है। सरकार, डॉक्टरों और फार्मास्युटिकल कंपनियों को मिलकर काम करना चाहिए ताकि जेनरिक दवाइयों का सही उपयोग हो सके और स्वास्थ्य देखभाल की लागत को कम किया जा सके।